Friday, December 5, 2014

स्त्री
पता नहीं कैसी संस्कृति थी...
जो
मेरे बाहर निकलते ही
ख़तरे में पड़ गयी?
मैं तो
अचार को भी धूप न दिखाऊँ
तो ख़राब हो जाता है!


Hanumant Sharma की wall से साभार

Thursday, December 4, 2014

Tuesday, December 2, 2014


सूत ना कपास अर जुलाहे गेल लट्ठमलट्ठा

एक बर एक आदमी नैं अमीर बनण की सोच्ची अक दूध बेचकै दो पीसे कमा ल्यूंगा। गांम के चौधरियां के घरां तैं भैंसां का दूध कट्ठा करकै अर उसमैं किमें पानी मिलाकै वो दूध का मटका भर लिया करता अर शहर मैं जाकै बेच दिया करता। शहर मैं दूध बेच्चण का धन्धा चल लिकड़्या तो आमदन चालू होगी। फेर एक दिन सांझ नैं घरां अपणी खाट पै बैठकै उसनैं सोच्ची- ईबकै पीसे कट्ठे करकै एक मुर्गी खरीद ल्यूंगा। फेर मुर्गी अण्डे देवैगी तो अण्डे मैं तैं बच्चे लिकडै़ंगे अर इस तरियां थोड़े दिन पाच्छै मेरै धोरै घणीं ए मुर्गी कट्ठी हो ज्यैंगी। फेर ये घणी सारी मुर्गियां घणे सारे अण्डे देण लाग्गैंगी तो मैं अण्डे बेच-बेच कै खूब कमाई करण लाग ज्यांगा। फेर पीसे कट्ठे करकै एक गाय खरीद ल्यूंगा। अपणी गाय होय पाच्छै घर का दूध-दही हो ज्यैगा तो ब्याह करकै शहर मैं घर बसाऊंगा। फेर मेरै छोरा-छोरी होंगे अर वे आपस मैं लड़ैंगे। अर वे लड़ैंगे तो मेरै धोरै भुंडी ढाल कुटैंगे। न्यूं कहकै उसनैं हाथ मैं पकड़ी होई छड़ी गुस्से मैं घुमाई अर वा धोरै रखे उसके दूध के मटके कै जा लगी। मटका फूटग्या अर सारा दूध धार बण कै जमीन पै खिंडग्या।
तब तैं कहण मैं आवै है- सूत ना कपास अर जुलाहे सै लट्ठमलट्ठा या न्यूं भी कहवै हैं- घर मैं ना घोड़ा, ना घास। अर घास के मोलभाव की आस।
नानी - दादी बनकर लगा कि मैं फिर से बच्चा बन गई हूँ।
अपनी उम्र भूल गई हूँ।
अपनी लाड़ली मंशा के साथ बिलकुल बच्चे की तरह खेलती हूँ. वैसे ही हंसती हूँ, उसके खिलौने मुझे आकृष्ट करते हैं।
...
जैसे बच्चों का मन पढाई में कम लगता है और खेल में ज़्यादा, वैसे ही मेरा मन हो गया है।
युगांतर मुझे बहुत दौड़ाता है। गोड्डों में नया जोश आ गया है।
इस बदलाव के लिए कुदरत का धन्यवाद।
मै अपनी धुन में रहता हूँ
वो अपनी धुन मे रहती है
अंबर जो उस से कहता हैं
धरती वो मुझ से कहती हैं
समा गये हम ...
इक दूजे मे कुछ यूँ
ना मै उस से मिलता हूँ
ना वो मुझ से बिछडती है.

Udai Shastri

Monday, December 1, 2014

महाकवि कालिदास

महाकवि कालिदास से एक बार राजा विक्रमादित्य ने प्रश्न किया;
महात्मन आप इतने बड़े विद्वान हैं लेकिन आपका शरीर आपकी बुद्धि के अनुसार सुन्दर नहीं है। इसकी वजह क्या है?
कालीदास उस समय चुप रहे। और बात को टाल गए। कुछ दिन बाद महाराज ने अपने सेवक से पीने के लिए पानी मांगा।
सेवक कालिदास के निर्देशानुसार दो बरतनों में पानी ले आया।
एक बरतन सधारण मिट्टी का था तो दूसरा बहुमुल्य धातु का था। महाराज ने आश्चर्य से इस तरह पानी लाने की वजह पूछी तो कालीदास ने आग्रह कर उन्हें दोनों बरतनों से पानी... पीने को कहा।
महाराज ने ऐसा ही किया।
कछ समय पश्चात कालिदास ने महाराज से पूछा, ” इन दोनों बरतनों में से किस बरतन का पानी ज्यादा शीतल लगा ?”
“अवश्य मिटटी के बरतन का।” , महाराज ने सरलता पूर्वक जबाब दिया।
कालिदास मुस्कराए और बोले, ” राजन जिस प्रकार पानी की शीतलता बरतन की सुन्दरता पर निर्भर नहीं करती उसी प्रकार बुद्धि की सुन्दरता शरीर की सुन्दरता पर निभ्रर नहीं करती।”
राजा को अपने सवाल का जबाब मिल चुका था.