Tuesday, December 2, 2014

सूत ना कपास अर जुलाहे गेल लट्ठमलट्ठा

एक बर एक आदमी नैं अमीर बनण की सोच्ची अक दूध बेचकै दो पीसे कमा ल्यूंगा। गांम के चौधरियां के घरां तैं भैंसां का दूध कट्ठा करकै अर उसमैं किमें पानी मिलाकै वो दूध का मटका भर लिया करता अर शहर मैं जाकै बेच दिया करता। शहर मैं दूध बेच्चण का धन्धा चल लिकड़्या तो आमदन चालू होगी। फेर एक दिन सांझ नैं घरां अपणी खाट पै बैठकै उसनैं सोच्ची- ईबकै पीसे कट्ठे करकै एक मुर्गी खरीद ल्यूंगा। फेर मुर्गी अण्डे देवैगी तो अण्डे मैं तैं बच्चे लिकडै़ंगे अर इस तरियां थोड़े दिन पाच्छै मेरै धोरै घणीं ए मुर्गी कट्ठी हो ज्यैंगी। फेर ये घणी सारी मुर्गियां घणे सारे अण्डे देण लाग्गैंगी तो मैं अण्डे बेच-बेच कै खूब कमाई करण लाग ज्यांगा। फेर पीसे कट्ठे करकै एक गाय खरीद ल्यूंगा। अपणी गाय होय पाच्छै घर का दूध-दही हो ज्यैगा तो ब्याह करकै शहर मैं घर बसाऊंगा। फेर मेरै छोरा-छोरी होंगे अर वे आपस मैं लड़ैंगे। अर वे लड़ैंगे तो मेरै धोरै भुंडी ढाल कुटैंगे। न्यूं कहकै उसनैं हाथ मैं पकड़ी होई छड़ी गुस्से मैं घुमाई अर वा धोरै रखे उसके दूध के मटके कै जा लगी। मटका फूटग्या अर सारा दूध धार बण कै जमीन पै खिंडग्या।
तब तैं कहण मैं आवै है- सूत ना कपास अर जुलाहे सै लट्ठमलट्ठा या न्यूं भी कहवै हैं- घर मैं ना घोड़ा, ना घास। अर घास के मोलभाव की आस।

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