Thursday, July 22, 2010

अपनी पसंद की एक कविता

कभी हो ऐसा मैं बैठा देखता रहूँ उस दरख्त को
और उस दरख्त से कोई पत्ती न झडे
बल्कि अँखुआ जाए एक कली मेरे पास वाली टहनी पर
कभी हो ऐसा माँ झट्क कर झाड दे धूप की चादर
और खन्न से गिरे एक सूरज
माँ बाँध ले उसे आँचल के कोने से
कभी हो ऐसा बादलों का कारवाँ गुज़र जाने पर छूट जाए उनकी डायरी
जिसमे लिखे हो उनके नाम पते और बारिश की तफ्सीलें
और उस डायरी को पढ लूँ मैं
कभी हो ऐसा हवाओं में उडने लगें पहाड
और हवाऐं गुज़र जाऐं पिता के सीने से हो कर
हल्का हो जाए पिता का सीना
कभी हो ऐसा जब मैं गुज़रू प्रलय से तो जल जाऐं मेरे वस्त्र मेरा शरीर
बह जाऐं मेरे हर्ष मेरे शोक
लेकिन एक तारा बचा रह जाए मेरी आँख में
कभी हो ऐसा

2 comments:

  1. Nicely laid blog. There is life beyond fiction where human being is baked like gold in the sizzling heat both releasing their impurities to be Kundan. Let us dissolve in such heat to come near the eternity.
    BB Pardhan

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  2. Thanks for visit the blog. I expect your frequent visits and suggestions.

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