Thursday, July 29, 2010

पतंग में मेरे प्राण हैं

मुझे बचपन से ही पतंग उड़ाना बहुत अच्छा लगता है। पतंग के बहाने आकाश दिखता है, पतंग के रंग दीखते हैं, पक्षियों की उड़ानें दिखती हैं, हवा का वेग दीखता है अऔर फिर मन में कई सपने उगने लगते हैं - ऊँची उड़ान के, आज़ादी के, खुली सोच के, खुली सांस के। पतंग उड़ाने में एक प्रतियोगिता की भावना है। सब से अच्छी बात है कि पतंग को एक नियंत्रण में रहना पड़ता है नहीं तो वो kahin भी अटक या भटक सकती है। पतंग की कोई ताकत नहीं है कि उड़ सके। कोई उड़ाता है उसे अपने इशारों पर। जैसे कि कोई इस सृष्टि को अपने इशारों पर चलाता है। उड़ाने वाला यह कभी नहीं चाहता की पतंग गलत दिशा में जाए या किसी दूसरे के हाथ में जाए या कट जाए या कोई उसे लूट ले। पतंग उड़ाना बेहद सावधानी का काम है। पतंग उड़ाना एक सम्पूरण दर्शन है। आज तक समझ में नहीं आया कि लड़कियां पतंग क्यों नहीं उड़ाती हैं? या उन्हें पतंग उड़ाने नहीं दी जाती है कि कहीं उन्हें आकाश न दिख जाए या छत पे खड़ी लड़कियों को कोई देख न ले या वे किसी को न देख लें!!! पर पतंग में मेरे प्राण बसते हैं। मुझे उड़ती पतंग देखना आज भी उतना ही अच्छा लगता है जितना की ८-१० साल की उम्र में लगता था.

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